सोमवार, 29 अगस्त 2016

दहेज, आखिर कब तक!


कई लोग दहेज प्रथा इसलिए मानते चले आ रहे हैं क्योंकि उन्हें लगता है कि रीत है, हमेशा से चली आ रही है, इसे बदला नहीं जा सकता! आश्चर्य कि बात है कि महात्मा गांधी और जे पी नारायण जैसे लोगों के देश मे आज भी सुधार कि तरफ पहला कदम उठाने वाले लोगो कि कमी है। लड़की वाले दहेज देना अपना नैतिक कर्तव्य समझते हैं, उन्हें अपनी बिटिया को गृहस्थी का सारा सामान और यदि दामाद जी को आवश्यकता है तो नकद राशि भी देनी है ताकि उनकी बिटिया अपने नए जीवन मे प्रवेश करने के बाद सुखी रहे। ऐसी परिस्थितियों मे लड़के वालों को भी लेने से कोई गुरेज नहीं, आखिर लड़की वाले खुद ही तो दे रहे हैं और बिटिया कि खुशी के लिए दे रहे हैं!!
क्या सत्य ही दहेज का सामान देने से बेटी के खुश रहने का आश्वासन मिल जाता है?
क्या यह संभव नहीं कि नए परिवार का रहन-सहन ऐसा हो कि आपकी बेटी को सामंजस्य बैठाने मे असुविधा हो और वो खुश न रह सके?
जहां तक मुझे लगता है, खुशियाँ धन से और भौतिक सुख-संसाधनो से नहीं खरीदी जा सकती, अन्यथा हर अमीर व्यक्ति सदैव खुश रहता, उसे कोई कष्ट न रहता। परंतु क्या सच मे ऐसा होता है? यदि आपने अपनी बेटी के लिए सही जीवनसाथी चुना है तो वो बिना दहेज के, अपनी मेहनत कि कमाई से ही आपकी बेटी को खुश रख सकता है और यदि इंसान ही गलत हो तो उसे आप खुद को गिरवी रख कर भी संतुष्ट नहीं कर सकते! ये तो बात थी उन लोगो कि जो स्वयं अपनी इच्छा से दहेज लेते और देते हैं। ये समाज के उस वर्ग के लोग हैं जिन्हें धन-संपत्ति कि कमी नहीं। हाँ, दान देने कि बात हो तो शायद कमी हो, पर विवाह मे खर्च करने के लिये भरपूर पैसा है। और समाज के ये लोग अन्य माध्यम वर्गीय और निम्न माध्यम वर्गीय परिवार के बेटी के पिता के लिए मुश्किलें खड़ी कर देते हैं। लड़के वालो को दहेज चाहिए और जिस पिता ने अपनी पूरी ज़िंदगी सिर्फ परिवार कि जरूरतों को पूरा करने मे बिता दी, वो अब अलग से बेटी के लिए दहेज कि रकम कहाँ से लाये? तो क्या गरीब परिवार कि बेटियों कि शादियाँ नहीं होंगी? उन्हें इंतज़ार करते रहना होगा, कब कोई बुद्धिजीवी परिवार उन्हें मिले जो दहेज का विरुद्ध हो और उनकी बेटी के गुणों को पहचाने? ज़रूरी नहीं, कि हर माध्यम वर्ग कि परिवार कि लड़की का भाग्य इतना प्रबल हो कि उन्हें ऐसा वर मिले। क्योंकि ऐसे परिवार तो समाज से विलुप्त होते जा रहे हैं।
तो क्या अब लड़कियों को एक ये भी एहसान का बोझ उठा के जीना होगा कि कौन लड़का उसे बिना दहेज के स्वीकारने को तैयार है?
क्या सत्य यह कोई एहसान होगा या हमारे समाज द्वारा बेटी के पैरों मे डाली गयी एक और बेड़ी?

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