शुक्रवार, 9 सितंबर 2016

मेरी मूर्खता!


सोचा लिखूँ माँ पर एक कविता,
समेट लूं चंद शब्दों में माँ को,
कैद कर लूं अपनी डायरी के पन्नों में,
दिखा दूं माँ को भी अपनी विद्वानीता,
तभी मन हंसा मेरी मूर्खता पर,
कैसे समेटागा तु उस माँ को,
अपनी इन चंद शब्दों से,
जो है ममता की निर्झर सरीता,
जिसकी न शुरू न अंत, जो है अनंत,
कैसे करेगा तु महज कुछ लफ्जों में,
उस ममतामयी माँ  की दर्द को बयां,
जो नौ महीने तुझे अपनी गर्भ में पाला,
भुल गया क्या माँ ही तुझे संसार दिखाया,
सारी दर्द सहकर तुझे इंसान बनाया,
रात भर जागकर लोरी सुनाया,
न कर सकेगा तु माँ की ममता को,
महज कुछ लफ्जों में कैद,
क्योंकि माँ की ममता है आजाद परिंदा,
जो स्वच्छंद विचरण करती खुले आसमान पर,
और प्यार बरसती अपनी बच्चों पर,
क्यों वर्णन करने चला है तु माँ को,
मत कर तु इतनी बड़ी भूल,
खो देगा तु अपनी अस्तित्व,
खत्म हो जायेगी तेरी कुल,

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