बुधवार, 7 सितंबर 2016

सपनें कभी अपने नहीं होते!


सपने खामोशी से टूटते है,
कभी सुनी है कोई आवाज़?
सपने मुरदों सी होती है,
कभी देखी है कोई हलचल?
टुट कर बिखर जाती है सपने,
जब मजबूरी हावी होने लगती है,
हम भी बुने थे कुछ सपने,
कुछ ख्वाब रखे थे पाले,
लेकिन उम्मीदों के बोझ तले,
धीरे धीरे बिखरने लगे सपने,
और मजबूरियां लगने लगी अपने,
हम भी रोज रात को सुनहरी सपने बुनते  है,
खामोश रहकर नई उम्मीदें चुनते है,
लेकिन छोटी छोटी मजबूरियां लगती है रोने,
और बिखर जाती है सपने,
तब ठहर सा जाता है ये लम्हा,
आँखों के सामने अंधेरा लगती है छाने,
लगने लगती है बेकार ये जिंदगी,
जब टुट जाते है सपने,
सपने आखिर सपने होते है,
ये कब अपने होते है,
टुट जाने देते है सपनों को,
और समेट लेते है अपनों को(मजबूरीयों को)

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