जब भी होता हूँ मैं तन्हा,
सोचता हूँ अकसर,
कौन हूँ मैं? क्या है मेरा अस्तित्व?
तभी विचार आता है मन में,
मैं उस छाया की तरह हूँ,
जो अंधेरे में गायब हो जाता है,
मैं उस पंजरे में बंद परिंदा जैसा हूँ,
जो कैद में रह कर भी,
आसमान में उड़ने की सपना देखता है,
तभी ख्याल आता है मन में,
मैं उस प्यासे पथिक की तरह हूँ,
जो अपनी प्यास बुझाने के लिए,
मृगतृष्णा में उलझ कर रह जाता है,
तभी आती है एक आवाज,
नहीं, तू छाया नहीं तू तो वो अक्स है,
जो अंधेरे में भी जुगनु जैसा चमकता है,
तू बंद पिंजरे का परिंदा नहीं,
तू तो वो बाज है,
जो खुले आसमान में उड़ने का हुनर रखता है,
सोचता हूँ अकसर,
कौन हूँ मैं? क्या है मेरा अस्तित्व?
तभी विचार आता है मन में,
मैं उस छाया की तरह हूँ,
जो अंधेरे में गायब हो जाता है,
मैं उस पंजरे में बंद परिंदा जैसा हूँ,
जो कैद में रह कर भी,
आसमान में उड़ने की सपना देखता है,
तभी ख्याल आता है मन में,
मैं उस प्यासे पथिक की तरह हूँ,
जो अपनी प्यास बुझाने के लिए,
मृगतृष्णा में उलझ कर रह जाता है,
तभी आती है एक आवाज,
नहीं, तू छाया नहीं तू तो वो अक्स है,
जो अंधेरे में भी जुगनु जैसा चमकता है,
तू बंद पिंजरे का परिंदा नहीं,
तू तो वो बाज है,
जो खुले आसमान में उड़ने का हुनर रखता है,