बुधवार, 10 अगस्त 2016

औरत

अनूठा है खेल तेरी
किस्मत का औरत,
आंचल में आँसू तू
अस्मत की औरत,
सजाती है आँगन
सितारों की दुनियां,
दुनियां में अपनी
विरानी है औरत।
बसा करके बसी न
हँसा करके हँसी है,
जिन्दगी का अनूठा
पहलू बनी है,
जिसने भी उछाला
उछली है औरत,
ठहरी तो ठहरा
कोई पहलू बनी है।
औरत न खोले जुबां
न खोले न सही मगर,
न खोले आबरु की
किताब तो ठीक है,
ढका रहता है घूंघट में
महाभारत का अंत,
न उठाए पर्दा,
न कहे गैर से
इतनी है बात तो ठीक है।
तराजू के पालने में
लटकी है औरत,
मंजिल से अपनी ही
भटकी है औरत,
रची है इसने ये
ब्रह्मा की धरती,
धरती पे अपनी
सिसकती है औरत।
हमसे न पूछ
‘वो’ किधर जा रही थी,
जिधर न थी मंजिल
चली जा रही थी,
किसी तरह पूछ लिया
रोक करके उसे,
इंसा पे उंगली उठाए जा रही थी।
-मनोरथ

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