मंगलवार, 30 अगस्त 2016

सफलता का राज:सकारात्मक सोच


प्रायः लोग अपनी असफलताओं के प्रति स्वयं के उत्तरदायित्व से बचने के लिए तमाम प्रकार के बहानों व कारणों को जिम्मेदार ठहराते हैं,,,,,, वे इस बात को समझने में पूरी तरह विफल हैं कि असली समस्या उनकी अपनी  मनोवृत्ति में है,,,,,,,
सफलता के लिए उचित मनोवृत्ति का होना आवश्यक है, क्योंकि जैसी मनोवृत्ति होगी, वैसा ही व्यवहार होगा, जैसा व्यवहार होगा, वैसे ही कार्य होंगे, जैसे कार्य होंगे, परिणाम भी उसी के अनूकुल होगा,,,, प्रायः लोग अपनी असफलताओं के प्रति स्वयं के उत्तरदायित्व से बचने के लिए तमाम प्रकार के बहानों व कारणों को जिम्मेदार ठहराते हैं वे इस बात को समझने में पूरी तरह से विफल हैं कि असली समस्या उनकी अपनी मनोवृत्ति ही  है, जो हमारे जीवन का निर्माण करती है, इसी के द्वारा हमारी सफलताएं व असफलताएं निर्देशित होती हैं,,,,,
विभिन्न क्षेत्रों के सफल व्यक्तियों के इतिहास  की गहराई से पड़ताल करने पर पता चलता है कि उनकी मनोवृत्ति सभी  कर्त्तव्यों के उत्तरदायित्व को अपने ऊपर  लने की होती है, ऐसे लोग बहानों में विश्वास नहीं करते और न ही अपनी  समस्याओं के लिए दूसरों को दोषी ठहराते हैं, आप किसी भी चीज को सकारात्मक अथवा नकारात्मक दृष्टि से देख सकते हैं, हमारी सोच सभी सफलताओं , समस्त सांसारिक प्राप्तियों, सभी महान खोजों एवं आविष्कारों तथा समस्त उपलब्धियों का मौलिक स्रोत होती है हमारे विचार हमारे  कैरियर  और वास्तव  में हमारे दैनिदिन जीवन के निर्धारक होते हैं, विचार सभी कार्यों के पीछे के मार्ग निर्देशक बल होते, हमारे कार्य अनजाने में हमें सफलता या असफलता की तरफ ले जाते हैं,  विचार मनुष्य को  बना देते हैं या तोड़ देते हैं,,,,,,
महान धर्म गुरुओं द्वारा  ब्रह्मांड, ब्रह्मांडीय मस्तिष्क को सोच द्वारा सृजित किया गया है यह  ब्रह्मांडीय मस्तिक सूचनाओं का महा राजपथ है, जो सभी मानव मस्तिष्कों को एक साथ जोड़ता है हम काफी हद तक दूसरों द्वारा समाचार पत्र, चलचित्र रेडियो और आकस्तिक भेंट मुलाकातों के दौरान एक छोटे से विचार के माध्यम से भी एक अलग ढांचे में ढाल दिए जाते हैं। हमारे  ऊपर  हर समय लगातार विभिन्न डिग्री के विचारों की बमबारी होती रहती है इनमें से कुछ हमारे अंदर की आवाज के साथ मेल खा सकते हैं और महान दृष्टि प्रदान कर सकते हैं सफलता की कला वास्तव में हमारे मस्तिष्क के दक्षातापूर्ण संचालन की एक कला है सफलता हमारे भीतर ही निहित होती है उसे बाहर निकालने के लिए प्रयास की आवश्यकता होती है। यदि हमारे प्रयास सकारात्मक होते हैं, तो हम सफलता की ओर बढ़ जाते हैं और यदि हमारे प्रयास नकारात्मक होते हैं, तो हम सफलता से दूर होते चले जाते हैं हमारे मनोभावों का हमारी जिंदगी में बड़ा महत्त्व होता है हमारे मन के भाव ही हमारे जीवन की दिशा को तय करते हैं हम जीवन में कितना ऊपर जाएंगे, यह इस बात पर निर्भर करता है कि हमारी मनोवृत्ति किस तरह की है हमारे जीवन का हर एक पक्ष हमारे मन द्वारा ही नियंत्रित होता है। हमारी सफलता- असफलता सब मनोवृत्ति पर निर्भर करती है यदि हम अपने मन को किसी एक विषय पर फोकस कर लें, तो कोई वजह नहीं कि हम अपने लक्ष्य को हासिल न कर सकें कोई भी लक्ष्य हासिल करने के लिए एकाग्रता जरूरी है और इस एकाग्रता में मन अपनी अहम भूमिका निभाता है। जब हम एकाग्र हो गए तो समझो हम सफल हो गए,,,,,,,,
जिस प्रकार यदि किसी उपजाऊ भूमि में फसल न उगाया जाए तो उस भूमि में अनावश्यक घास, फुस,कंटीली झाड़ियां उग  जाती है सेम हमारा
दिमाग भी उपजाऊ भूमि की तरह ही है यदि आप इसमें फसल रूपी सकारात्मक विचार नहीं उगायेगे तो इसमें स्वतः घास झाड़ी रुपी नकारात्मक विचार उगेगा ये आपके उपर निर्भर करता है कि आप क्या उगाना चहते है,,,,,
आपके स्वर्णिम भविष्य की कामना के साथ आपका दोस्त मनोरथ,,,,,,

सोमवार, 29 अगस्त 2016

दहेज, आखिर कब तक!


कई लोग दहेज प्रथा इसलिए मानते चले आ रहे हैं क्योंकि उन्हें लगता है कि रीत है, हमेशा से चली आ रही है, इसे बदला नहीं जा सकता! आश्चर्य कि बात है कि महात्मा गांधी और जे पी नारायण जैसे लोगों के देश मे आज भी सुधार कि तरफ पहला कदम उठाने वाले लोगो कि कमी है। लड़की वाले दहेज देना अपना नैतिक कर्तव्य समझते हैं, उन्हें अपनी बिटिया को गृहस्थी का सारा सामान और यदि दामाद जी को आवश्यकता है तो नकद राशि भी देनी है ताकि उनकी बिटिया अपने नए जीवन मे प्रवेश करने के बाद सुखी रहे। ऐसी परिस्थितियों मे लड़के वालों को भी लेने से कोई गुरेज नहीं, आखिर लड़की वाले खुद ही तो दे रहे हैं और बिटिया कि खुशी के लिए दे रहे हैं!!
क्या सत्य ही दहेज का सामान देने से बेटी के खुश रहने का आश्वासन मिल जाता है?
क्या यह संभव नहीं कि नए परिवार का रहन-सहन ऐसा हो कि आपकी बेटी को सामंजस्य बैठाने मे असुविधा हो और वो खुश न रह सके?
जहां तक मुझे लगता है, खुशियाँ धन से और भौतिक सुख-संसाधनो से नहीं खरीदी जा सकती, अन्यथा हर अमीर व्यक्ति सदैव खुश रहता, उसे कोई कष्ट न रहता। परंतु क्या सच मे ऐसा होता है? यदि आपने अपनी बेटी के लिए सही जीवनसाथी चुना है तो वो बिना दहेज के, अपनी मेहनत कि कमाई से ही आपकी बेटी को खुश रख सकता है और यदि इंसान ही गलत हो तो उसे आप खुद को गिरवी रख कर भी संतुष्ट नहीं कर सकते! ये तो बात थी उन लोगो कि जो स्वयं अपनी इच्छा से दहेज लेते और देते हैं। ये समाज के उस वर्ग के लोग हैं जिन्हें धन-संपत्ति कि कमी नहीं। हाँ, दान देने कि बात हो तो शायद कमी हो, पर विवाह मे खर्च करने के लिये भरपूर पैसा है। और समाज के ये लोग अन्य माध्यम वर्गीय और निम्न माध्यम वर्गीय परिवार के बेटी के पिता के लिए मुश्किलें खड़ी कर देते हैं। लड़के वालो को दहेज चाहिए और जिस पिता ने अपनी पूरी ज़िंदगी सिर्फ परिवार कि जरूरतों को पूरा करने मे बिता दी, वो अब अलग से बेटी के लिए दहेज कि रकम कहाँ से लाये? तो क्या गरीब परिवार कि बेटियों कि शादियाँ नहीं होंगी? उन्हें इंतज़ार करते रहना होगा, कब कोई बुद्धिजीवी परिवार उन्हें मिले जो दहेज का विरुद्ध हो और उनकी बेटी के गुणों को पहचाने? ज़रूरी नहीं, कि हर माध्यम वर्ग कि परिवार कि लड़की का भाग्य इतना प्रबल हो कि उन्हें ऐसा वर मिले। क्योंकि ऐसे परिवार तो समाज से विलुप्त होते जा रहे हैं।
तो क्या अब लड़कियों को एक ये भी एहसान का बोझ उठा के जीना होगा कि कौन लड़का उसे बिना दहेज के स्वीकारने को तैयार है?
क्या सत्य यह कोई एहसान होगा या हमारे समाज द्वारा बेटी के पैरों मे डाली गयी एक और बेड़ी?

शनिवार, 27 अगस्त 2016

नारी की ऐसी अवहेलना !


हमारे देश में बेटे के मोह के चलते हर साल लाखों बच्चियों की इस दुनिया में आने से पहले ही हत्या कर दी जाती है। लड़कियों की इतनी अवहेलना, इतना तिरस्कार चिंताजनक और अमानवीय है। जिस देश में स्त्री की सेवा, त्याग और ममता की दुहाई दी जाती हो, उसी देश में एक कन्या के आगमन पर पूरे परिवार में मायूसी और शोक छा जाना बहुत बड़ी विडंबना है। लोगों में पुत्र की बढ़ती लालसा और खतरनाक गति से लगातार घटता स्त्री- पुरुष अनुपात समाजशास्त्रियों, जनसंख्या विशेषज्ञों और योजनाकारों के लिए चिंता का विषय बन गया है। यूनिसेफ के अनुसार दस प्रतिशत महिलाएं विश्व जनसंख्या से लुप्त हो चुकी हैं। स्त्रियों के इस विलोपन के पीछे कन्या भ्रूण हत्या ही मुख्य कारण है। भ्रूण हत्या का कारण है कि हमारे समाज में व्याप्त रूढ़िवादिता और लोगों की संकीर्ण सोच। संकीर्ण मानसिकता और समाज में कायम अंधविश्वास के कारण लोग बेटा-बेटी में भेद करते हैं। प्रचलित रीति-रिवाजों और सामाजिक व्यवस्था के कारण भी बेटा और बेटी के प्रति लोगों की सोच विकृत हुई है। ज्यादातर मां-बाप सोचते हैं कि बेटा तो जीवन पर्यंत उनके साथ रहेगा और बुढ़ापे में उनका सहारा बनेगा।
समाज में वंश परंपरा का पोषक लड़कों को ही माना जाता है। इस पुत्र कामना के चलते ही लोग अपने घर में बेटी के जन्म की कामना नहीं करते। बड़े शहरों के कुछ पढ़े लिखे परिवारों में यह सोच थोड़ी बदली है, लेकिन गांव-देहात और छोटे शहरों में आज भी बेटियों को लेकर पुराना रवैया कायम है।
मदर टेरेसा ने कहा था, 'हम ममता के तोहफे को मिटा नहीं सकते। स्त्री और पुरुष के बीच कुदरती समानता खत्म करने के लिए हिंसक हथकंडे अपनाने से समाज पराभव की ओर बढ़ता है।' नारी मानव शरीर की निर्माता है, फिर भी उसी की अवहेलना की जा रही है। नारी अपने रक्त और मांस के कण-कण से संतान का निर्माण करती है। नर और नारी मानवरूपी रथ के ऐसे दो पहिए हैं जिनके बिना यह रथ आगे नहीं बढ़ सकता। महर्षि दयानंद ने कहा था कि जब तक देश में स्त्रियां सुरक्षित नहीं होंगी और उसे उसके गौरवपूर्ण स्थान पर प्रतिष्ठित नहीं किया जाएगा, तब तक समाज, परिवार का और राष्ट्र का निर्माण नहीं हो सकेगा। आज नारी विभिन्न क्षेत्रों में अपना सकारात्मक योगदान कर रही है। वह आत्मनिर्भर होकर अपने परिवार और देश का हित करने में संलग्न है। ऐसे में अगर नारी की अवहेलना होगी तो समाज और देश का अहित होगा। महिलाओं के प्रति वर्तमान दृष्टिकोण इस युग की सबसे बड़ी त्रासदी है। यह हमारे समाज की बर्बर मानसिकता का ही प्रतीक है कि महिलाओं को शिक्षा, स्वास्थ्य, आर्थिक स्वतंत्रता का अधिकार देने की बात तो दूर उन्हें जन्म लेने से भी वंचित रखा जाता है। यह विडंबना ही है कि जिस देश में कभी नारी को गार्गी, मैत्रेयी जैसी विदुषी महिलाओं के रूप में सम्मान प्राप्त हुआ, वहीं अब कन्या के जन्म पर परिवार और समाज दुख व्याप जाता है। अच्छा हो मनुष्य जाति अपनी गरिमा पर प्रश्नचिह्न लगाने वाली ऐसी गतिविधि से बचे और कन्या के जन्म को अपने परिवार में देवी अवतरण के समान माने। हम न भूलें कि भविष्य लड़कियों का है। ऐसे में नारी का अवमूल्यन करना समूची मनुष्य जाति का अवमूल्यन करना है। मां का भी यह कर्त्तव्य है कि वह समाज के दबाव में आकर लड़की-लड़के का फर्क न करे। दोनों को समान स्नेह दें, दोनों के विकास में बराबर दिलचस्पी लें। बालिका-बालक दोनों प्यार के अधिकारी हैं। इनमें किसी भी प्रकार का भेद परमात्मा की इस सृष्टि के साथ खिलवाड़ है।

शुक्रवार, 26 अगस्त 2016

दहेज:एक समाजीक कुप्रथा

क्या लड़की होना पाप है........?
लड़कियाँ क्या इंसान नहीं होती .......?
क्यों दी जा रही है उसके वजूद को चुनौती ......?
आज का सामाजिक परिवेश इन्ही सवालों से इस कदर घिर चुका है
कि वह चाहकर भी इन सवालों के घेरे से बाहर नहीं निकल पा रहाIएक बेबस माँ–बाप बस अपनी ज़िम्मेदारी के नाम पर अपनी बेटियों को गहरी खाई मे ढकेलने  से बाज नहीं आ रहे हैI भारत का पुरुष सत्तामक समाज लड़कियों के जन्म को अपशकुन मानता हैI गरीब माँ–बाप के घर मे तो लड़कियाँ किसी बोझ से कम नहीं समझी जातीI लड़कियों के प्रति इस भेदभाव के पीछे हमारे समाज मे सदियों से चली आ रही सामाजिक कुरीति दहेज–प्रथा ही तो हैI
“ये कौन सुमनों को लील रहा,
मुख किसका आज विकराल हुआ है,
चंद रुपयो कि खातिर मानव,
नर वेश मे क्यों शृंगाल हुआ है“
भला मानव के शृंगाल बनने मे कितनी देर हो सकती हैI एक तरफ हम आधुनिक युग मे जी रहे है,तो दूसरी तरफ देश कि आधी आबादी घुट घुट कर जीने को मजबूर हैI दहेज लोभी दानवो के चंगुल मे मासुम कलियाँ दम तोड़ रही हैI रोजाना दहेज के लिए बहुओ को प्रताड़ित किया जा रहा है,उन्हे ताने दिये जा रहे हैं और मौत के घाट उतारे जा रहे हैंI
“है बाजार यह अद्भुत अनोखा,
नर पशु निरीह यहाँ बिकते हैं,
विक्रेता की स्वार्थी हंसी से,
क्रेता क्रंदित हो बस चीखते हैं“
आज का युग बाजारवाद का युग है इसमे क्रय–विक्रय की परंपराए शुरू हो गयी हैIदहेज लोभी दानवो ने शादी जैसे पवित्र रिश्ते के बंधन को भी अपनी भौतिकवादी मनोवृति तथा हैवानियत से कलंकित कर दिया हैI
सामान्य अर्थ मे दहेज विवाह के समय वधू पक्ष द्वारा वर पक्ष को दिया गया उपहार हैIधीरे धीरे ये उपहार मांग मे परिवर्तित हो गयी और
स्त्रियॉं के वजूद पर प्रश्नचिन्ह लगा दियेI उनका मान सम्मान काबिलियत सब कुछ दहेज पर निर्भर हो गएIआज तो दूल्हे की बोली लगती हैI जो जितना ही ऊंचे रसूख वाला है,उसकी उतनी ही बोली लगाई जाती हैI महर्षि मनु ने तो ऐसे विवाह को असुर विवाह की संज्ञा दी है जो हमारे यहाँ प्रचलित आठ विवाहों मे अधम माना जाता हैI
सम्पूर्ण समाज को सुरसा की भांति निगलने को तैयार इस कुटिल व अवैध परंपरा को समाप्त करने के लिए 1961 तथा 1985 ईसवी में दहेज निरोधी
कानून बनाए गएI लेकिन ये प्रयास नाकाफी हैI इसके लिए नवयुवकों को आगे आना होगाI
 “दहेज लेना और देना पाप है“ इस भावना को आत्मसात करना होगा और विवाह को प्रतिष्ठा या दिखाऊ समारोह न बनाकर दो दिलों दो परिवारों का मिलन बनाना होगाI भला एक होने मे छल कपट क्यों ...... एक हँसी एक रुदन क्यों .....?
“नवयुवकों आगे बढ़ो,
एक संग्राम तुझे अब लड़ना है,
दो दिलों के मिलनोत्सव पर,
मुस्कान तुझे अब लाना है,
यह समारोह कुछ और नहीं,
नयी परंपरा दो नए दिलों का,
क्यों दहेज का काम यहाँ पे?
क्यों समाज का ताना है????

नारी के प्रति मानसिकता बदलें समाज


नारी किसी भी समाज,धर्म,जाति व समुदाय का एक बहुत ही मजबूत और अहम हिस्सा है।अगर आसान शब्दों कहें में तो नारी एक आधारभूत स्तम्भहै।जो एक समाज़,श्रेष्ठ धर्म व श्रेष्ठ सामुदाय के निर्माण में सहायक होती है और पुरुष जितना भी प्रयास करते है उसके पीछे प्रोत्साहन एक नारी का ही होता है। परन्तु फिर भी जब एक नारी की दयनीय स्थिति दिखती है,जब उस पर अत्यचार होते है,मानसिक और शरीरिक शोषण होता है,कुछ घरों में एक बहिन,बहु,बेटी माँ को उचित स्थान व सम्मान प्राप्त नही होता तो नारी को देवी बताने वाली सभी बातें बेमानी और सिर्फ सी ही लगती है। आश्चर्य तो तब होता है जब आज के कुछ युवाओं की भी विचारधारा में ऐसी बीमार सोच का परिचय मिलता है, हद तो तब हो जाती है जब दोस्ती,भाई-बहिनऔर बाप-बेटी जैसे रिश्तेभी शर्मसार होते हुए और सहमे-सहमे से नज़र आते है। शायद इसकी वजह एक ऐसी मानसिकता है जिसके अंतरगत महिलाओं को बराबरी का नही बल्कि दोयम दर्जे का समझा जाता है,और उसी मानसिकता के चलते कुछ लोग महिलाओं को एक भावनाओं से भरी इंसान कि जगह उपभोग की कोई वास्तु समझते है,और कुछ लोग तो लड़कियों को बोझ मानकर कन्या भ्रूण हत्या जैसा घोर पाप कर बैठते है।परन्तु बिना नारी के हम किसी भी समाज कि कल्पना नही कर सकते।
हमें ज़रूरत है तो महिलाओं के प्रति अपनी सोच और विचारधारा बदलने की। किसी व्यक्ति को विचारधारा उसके समाज,घर-परिवार व स्कूल से ही प्राप्त होती है। यदि घरों में बच्चों को नैतिक मूल्यों और महिलाओं का सम्मान सिखाया जाये महिलाओं को शोषित होने से बचाया जा सकता है,और हमारा समाज एक बहुत बड़े कलंक से भी बच सकता है।

गुरुवार, 25 अगस्त 2016

मेरी प्यारी माँ


माँ ओ मेरी प्यारी माँ,
तु ही मेरी जिंदगी,
तु ही मेरी दुनिया,
तेरे सिवा ना कोई,
जहाँ में कोई अपना,
तु ही मेरी जन्नत है,
तु ही मेरी मंदिर,
घर से दूर हूँ,
तुझसे मिलने को हूँ अधिर,
तुझे ही मैंने भगवान माना,
तुझे ही मेरा जीवन ,
तु ही मेरी खुशी,
तु ही मेरा गम,
तु ही है ममता की मुरत,
तुझमें ही बसती है,
मेरे भगवान की सुरत,
न कोई करता प्यार,
तेरे जैसा सच्चा,
आज भी हूँ मैं वही,
तेरा छोटा सा बच्चा,
ओ माँ मेरी प्यारी माँ,
तेरी याद बहुत सताती है,
आंसू पोंछने को अकसर,
ढुड़ता हूँ तेरी आंचल,
न मिलता यहाँ तेरी आंचल,
अकसर उदास रहता हूँ,
कैसे करें गम को,
अलफाजों में बयां,
बस तेरी याद बेहिसाब आती है
माँ ओ मेरी प्यारी माँ,,,,,

मंगलवार, 23 अगस्त 2016

नदान मन


ओ री मेरा नादान मन,
क्यों रहता है तू परेशान,
होगा एक नया सबेरा,
मंजिल मिलेगी तुझको,
होगी दुनिया कदमों में तेरा,
राहों में होती मुश्किल हजार,
इतनी जल्दी बिखर जाओगी,
न होंगे सपने सकार,
अभी राह तो शुरू हुई है,
जाना है तुझे बहुत दूर,
न रुकना है,न मुड़ना है,
तुझे तो बस चलते जाना है,
याद कर तु अपनी वादा,
क्यों आया है तु इस जग में,
कायरों की तरह न बदल इरादा,
क्या हुआ जो तुझे न मिला प्यार,
इतनी छोटी सी बात से,
मायूस न होना मेरे यार,
होगी कोई न कोई जग में,
जिसे है तेरा इंतजार,
फिर तु देखना मनोरथ,
क्या होता है प्यार,